कोर्ट में जजों को ‘माई लॉर्ड’ कहकर संबोधित करना एक लंबी परंपरा है जो ब्रिटिश कानूनी व्यवस्था से प्रभावित हुई है। भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान यह प्रथा शुरू हुई थी। ‘माई लॉर्ड’ का प्रयोग न्यायाधीशों के प्रति सम्मान और गरिमा दिखाने के लिए किया जाता था। यह माना जाता था कि यह पद न केवल व्यक्तिगत है बल्कि कानून और न्याय की एक प्रतिनिधित्व है। समय के साथ यह परंपरा इतनी प्रचलित हो गई कि आज भी इसे जारी रखा जाता है, हालांकि हाल के समय में इस परंपरा को लेकर कई सवाल उठाए गए हैं।
‘माई लॉर्ड’ ही क्यों?
भारतीय न्यायपालिका में जजों को ‘माई लॉर्ड’ या ‘योर लॉर्डशिप’ कहकर संबोधित करने की परंपरा को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है। यह परंपरा ब्रिटिश काल की देन है। हालाँकि, कई भारतीय जजों ने इस परंपरा पर सवाल उठाए हैं और इसे औपनिवेशिक काल की विरासत बताया है। जस्टिस नरसिम्हा सहित कई अन्य जजों ने ‘माई लॉर्ड’ की जगह ‘सर’ जैसे शब्द का इस्तेमाल करने पर सहमति जताई है। उनका मानना है कि यह शब्द अधिक उपयुक्त है और यह भारतीय संदर्भ में अधिक मेल खाता है। इस तरह की प्रतिक्रियाएं दर्शाती हैं कि न्यायपालिका में भी बदलाव की हवा चल रही है और लोग अब पुराने रीति-रिवाजों पर सवाल उठाने के लिए तैयार हैं।
कैसे आया माई लॉर्ड शब्द
भारतीय न्यायपालिका में जजों को ‘माई लॉर्ड’ कहकर संबोधित करने की परंपरा की जड़ें ब्रिटिश काल में हैं। ब्रिटेन में उच्च न्यायालय के जजों को ‘माई लॉर्ड’ कहा जाता था, जो कि ब्रिटिश संसद के उच्च सदन, हाउस ऑफ लॉर्ड्स से जुड़ा हुआ एक सम्मानजनक पद है। जब भारत में ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ तो ब्रिटिश कानूनी व्यवस्था को यहां लागू किया गया। इसी के साथ, ब्रिटिश न्यायिक परंपराओं को भी अपनाया गया, जिसमें जजों को ‘माई लॉर्ड’ कहकर संबोधित करना शामिल था। यह शब्द भारत में इसलिए प्रचलित हो गया क्योंकि ब्रिटिश काल में भारत में भी हाउस ऑफ लॉर्ड्स के समान एक शक्तिशाली विधायी निकाय था।
भारत से अंग्रेजों के जाने के बाद भी कई ब्रिटिश काल की विरासतें हमारे समाज में बनी हुई हैं। इनमें से एक है अदालतों में जजों को ‘माई लॉर्ड’ कहकर संबोधित करना। यह परंपरा ब्रिटिश कानूनी व्यवस्था का एक हिस्सा थी और भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान अपनाई गई थी। भले ही ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया हो, लेकिन यह परंपरा इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी थी कि आज भी अदालतों में इसका इस्तेमाल होता है।
दिलचस्प बात यह है कि साल 2006 में बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने इस तरह के शब्दों पर रोक लगाने का प्रस्ताव पारित किया था। इसके बावजूद, अदालतों में इस शब्द का इस्तेमाल जारी रहा। इसका कारण यह है कि कानूनी प्रक्रियाएं और परंपराएं अक्सर धीरे-धीरे बदलती हैं। इसके अलावा, अदालतें एक ऐसी संस्था हैं जो परंपराओं और रीति-रिवाजों को महत्व देती हैं।